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Tuesday, 25 March 2014

thoughts



sometimes it happen and sometimes it won't,
life smiles with me and sometimes it don't.
I look ahead and i look around,
I find nothing but the pebbles on the ground,
each despair seems to found.
it runs, it floats and it fly,
sometimes deep and sometimes high,
the thought with which sometimes I laugh and sometimes i cry..............

dreams



twig by twig , drop by drop it fades away
it twinkles ,it glow while moving slow
besides the bay
it brings some shadows that grew up with its every fall
clearing the picture like removing smoke from the wall
by course of time i make castle of clay
and then it sparkles from the window
and all that bids the way
twig by twig , drop by drop it fades away

Time



time and time takes it all,
what with time, time gave us all.
some laughter some pain
some losses and some gain
what it leaves it shouldn't have left
the emptiness deep inside
a castle of mud undergone theft
whoever to cheer, then may be beside,
for the moment of joy or the moment of dull
is gone and gone and
wait for none..

Missing all that I had once.....



missing all that i had once, 
two lips which knew how to smile
two eyes those shed tears when cry,
now that all is lost in that sand of past.

missing all that i had once,
a mind full of dreams
a heart that beats
now that all is lost with the time that ran fast.

missing all that i had once,
the power to trust
the art of forgiveness,
now that all is lost with the love that didn't last.

will miss what's fading away,
breath that warms me
rain that wets me
for soon that all will be lost in that sand of past.

missing all that i had once,
for time good or bad never last.

"मैं और मैं का वजूद"

इस भागती, खुद से अंजान दुनिया में जहाँ किस को क्या चाहिए किसी को नहीं पता, इस नासमझ दुनिया का एक हिस्सा मैं भी हूँ। मैं जिस मैं को अपना वजूद ढूँढते आज एक अरसा हो चुका पर कामयाबी अभी भी मीलों दूर जान पड़ती हैं।
अप्नत्व की भावना मनुष्य से सत्य ही सब कुछ छिन लेती है। कभी कभी वो भी जो शायद उसने पूरी तरह कभी दिया ही ना हो। जिन्दगी के इस मोड़ पर खड़े होकर इस बात का एहसास तो निःसन्देह ही हो जाता है कि इन्सान का अकेलापन ही इन्सान का अपना होता है, बाकि सब पानी की लहरों की तरह कुछ पल साहिल पर ठहराव ले, अपने दूसरे पढ़ाव को बढ़ जाता है।
रिश्तों के मायाजाल में आज रिश्तों के मायनें ढूँढना रेत के सैलाब में आँसू के एक कतरे को तलाशने के समान है, निरर्थक और बेबुनियादी। वक्त के हर बदलते दौर के साथ कपड़ो के भाँति रिश्तों का बदलना एक बहुत ही आम बात है। बहुत खास रिश्तें, अनगिनत खुशनुमा लम्हें, हजारों वादे और एक दूजे के बिन ना जी पाने की लचारी मानों सिर्फ बस स्टॉप पे खड़े यात्री की बस छूट जाने की लचारी के समान है। दूसरी बस के आते ही उसकी यह लचारी अतीत होती नजर आने लगती है और जो सीट मिल जाए तो यह अतीत बेवजूद हो जाता है जैसे मानो कभी था ही नहीं।
इन्सान को कब क्या चाहिए शायद ही कोई इसका जवाब स्वयं को दे पाया होगा या कि कभी ही दे पायेगा। क्या पाने के लिए कब क्या खो दे, और फिर पुनः उस चीज की लालसा में कब क्या गवा बैठे इस बात का अनुमान लगा पाना शायद ही किसी गणितज्ञ के बस की बात हो।
आज के इस दौर में चाहतों ने अपने दायरों से बाहर निकलना सीख लिया है और सिर्फ इतना ही नहीं अपितु वक्त की रफ्तार के साथ जैसें इन चाहतों ने एक दौड़ प्रतियोगिता आयोजित कर ली हो ऐसा प्रतीत होता है। जैसे ही कोई एक चाहत समाप्ति की रेखा के समीप पहुँचती है ठीक उसी क्षण  एक नयी चाह एक नयी दौड़ प्रतियोगिता की घोषणा कर देती है। रात तो सिर्फ इस दौड़ के बीच के उन लम्हों के समान आती है जहाँ पानी की चंद बूँदें हलक के नीचे बड़ी मुश्किल से उतर पाती हैं और बाकि साँस सँभालने में कट जाती है। एक बैचेनी इस कदर घेरे रहती है मानों वक्त और रिश्तों के सच- झूठ से बने एक कैदखाने में जकड़े पड़े हों।
साथ होने पर दूर जाने का डर, डर खत्म हो जाने पर किसी और से जुड़ने की चाह, सब कुछ पा जाने पर खुद से बढ़ती दूरी के शिकवे- गिले और नतीजा फिर अकेलेपन के कांधे सर रखे रोते सारी रात का व्यतीत होना।
तो सवाल ये सामने खड़ा हो उठता है कि क्या यह ही सत्य है कि अभिमन्यु की भाँति हम भी इस चाहत के चक्रव्यूह में अंतिम वेला तक के लिए संघर्ष करते रहेंगे या कभी इस पर विजयध्वज का परचम लहरायेंगे?
सवाल स्वयं अपना जवाब अपने गर्भ में ढाँके हुए है बस जरूरत कुछ पल जिन्दगी से लड़कर छिनने और उन्हे डूबते सूरज के साथ खुद को एक कप कॉफी संग सर्व करने की है।

तो क्या आज आपकी कॉफी तैयार है?

nazaar ka nazariya



संसार भांत भांत के लोगों से संरचित है वस्त्र भूषा, भाषा, रंग रूप, जात पात एवं अनेक विभिन्नताएँ  मनुष्य  को एक दूसरे  से भिंन करती हैं परन्तु जो सबसे बड़ी विभिन्नता है वो है सोच और विचारधारा की जो किसी समुदाय के दर्जे तक नहीं अपितु हर एक इंसान को दूसरे इंसान से सम्पूर्ण रूप से अलग बनाती है।
मनुष्य का मष्तिष्क एक मात्र ऐसी संरचना है जो इर्द गिर्द सभी घटनाओं, बदलावों एवं अविष्कारों का जनक है। जो मानव समाज की प्रगति से पतन तक का अकेला जिम्मेदार है। शरीर की सारी गतिविधियों का नियत्रण करने के साथ साथ भौतिक तथा अभौतिक तत्वों को रचित करने की शमता भी ये मष्तिष्क ही रखता है। जो दिखता है वो क्या है और उसका अभिप्राय ज्ञात करना भी इसी दिमाग की कार्येसुची में शामिल है और जो चक्षु सीमा के परे है उसको चलचित्र के समान स्वप्न में रचित करना भी इसी बुद्धिजीवी की नैतिक लीला का हिस्सा है। इसलिए तो संसार में अनेकों नेत्रवान भी नेत्रहीन है और कई नात्रहीन सांसारिक समुद्र में डूबे सत्यकलश को मंथन कर पायें हैं । महज आँखों से उतारी तस्वीर के कोई मायने नहीं जब तक मगज में उस तस्वीर को किसी शब्दमाला में बीरो कर सोच की आंच पर तराशा ना जाये।
प्याला आधा भरा है की आधा खाली ये मापना नयनसीमा के बाहर है, इस जैसे अनेक मापदंडों को सोच के तराजू में ही तोला जा सकता है। आज की इस भागती दुनिया में आपकी नज़र नहीं अपितु आपका नजरिया ही आपको किसी मुकाम तक पहुंचा सकता है और उस मुकाम को समाज रचित सही गलत के आकडों  पर खरा उतारना भी आपके नज़रिए पर ही निर्भर करता है। इसलिए तो आप क्या देख रहे से कहीं ज्यादा आप क्या देख पा रहे हैं वो अस्तित्व रखता है। अर्थात आँखों से सृजित छाया से कहीं ज्यादा प्रभावशील मष्तिष्क पटल पर उकेरी गयी छवि है जो आपको किसी निष्कर्ष पर ले जायेगी। अत : ये अत्यंत आवश्यक है कि नज़र की दृष्टि सुधारने के लिए पहने गए ऐनक के साथ ही हम नज़रिए के दृष्टिकोण को सुधारने का भी प्रयास करें ।
समाज में व्याप्त आज अनेकों समस्याओं का समाधान हमारे दृष्टिकोण पर आश्रित है। इश्वर के अस्तित्व से लेकर सत्य की परिभाषा तक, नैतिक - अनैतिकता के दायरों से लेकर पाप - पुण्य के परिणामों तक, छल- कपट, लालसा, स्वार्थ, परमार्थ, प्रेम, समभाव आदि उत्पन्न  वाली अनेकों भावनाओं का एकभूत संत्री हमारा नजरिया ही है। स्वच्छ नजरिया प्रेम की कोमलता और पावनता को देख पाता है वहीँ अस्वच्छ मन उसे काम और वासना की नज़र से ही आंक पाता है। कई बार हमारी सोच हमें इस कदर जकड़े रहती है कि आँखों के सामने घटित हो रहे सत्य की भी हम अवेहलना कर देते हैं और कभी यही सोच की पट्टी हमे इस हद तक अँधा बना देती है कि हम उस चीज़ का भी इल्म कर बैठते हैं जिसका कोई वजूद ही नही
                                               कस्तूरी तृष्णा में लिप्त भागे मृग भरत छलांग
                                               बावरा हुए घुमत फिरत छोड़ छाड़ सब काम
                                               भर भर महक कस्तूरी ले वो स्वांसा तान
                                               मष्तिष्क चक्षु प्रयोग जो कर लेता तो पा जाता आराम
इसी प्रकार भांति भांति की तृष्णाओं के मायाजाल में फंसे अनेकों मृग रूपी मनुष्य जहाँ तहां अस्थिर अवस्था में विचर रहे हैं जब की मृग के सामान वो अपनी तृष्णाओं का सच अपने ही भीतर छिपाए हुए हैं बस मष्तिष्क चक्षु खोलने भर का इंतज़ार है। सभी स्वयं रचित अस्तित्वहीन खोखली दीवारें ढह जाएँगी सब फासले मिट जायेंगे सभी संघर्ष विजय प्राप्ति करेंगे क्योंकि
                                             मन की आंखन सब पढें जो नयन नज़र पाए
                                           जो मन ज्ञात भया वो स्वयं ज्ञात कसु होए