संसार भांत भांत
के लोगों से
संरचित है ।
वस्त्र भूषा, भाषा, रंग
रूप, जात पात
एवं अनेक विभिन्नताएँ मनुष्य को
एक दूसरे से भिंन
करती हैं परन्तु
जो सबसे बड़ी
विभिन्नता है वो
है सोच और
विचारधारा की जो
किसी समुदाय के
दर्जे तक नहीं
अपितु हर एक
इंसान को दूसरे
इंसान से सम्पूर्ण
रूप से अलग
बनाती है।
मनुष्य का मष्तिष्क
एक मात्र ऐसी
संरचना है जो
इर्द गिर्द सभी
घटनाओं, बदलावों एवं अविष्कारों
का जनक है।
जो मानव समाज
की प्रगति से
पतन तक का
अकेला जिम्मेदार है।
शरीर की सारी
गतिविधियों का नियत्रण
करने के साथ
साथ भौतिक तथा
अभौतिक तत्वों को रचित
करने की शमता
भी ये मष्तिष्क
ही रखता है।
जो दिखता है
वो क्या है
और उसका अभिप्राय
ज्ञात करना भी
इसी दिमाग की
कार्येसुची में शामिल
है और जो
चक्षु सीमा के
परे है उसको चलचित्र के समान स्वप्न में रचित करना भी इसी बुद्धिजीवी
की नैतिक लीला का हिस्सा है। इसलिए तो संसार में अनेकों नेत्रवान भी नेत्रहीन है और
कई नात्रहीन सांसारिक समुद्र में डूबे सत्यकलश को मंथन कर पायें हैं । महज आँखों से
उतारी तस्वीर के कोई मायने नहीं जब तक मगज में उस तस्वीर को किसी शब्दमाला में बीरो
कर सोच की आंच पर तराशा ना जाये।
प्याला आधा भरा है
की आधा खाली ये मापना नयनसीमा के बाहर है, इस जैसे अनेक मापदंडों को सोच के तराजू में
ही तोला जा सकता है। आज की इस भागती दुनिया में आपकी नज़र नहीं अपितु आपका नजरिया ही
आपको किसी मुकाम तक पहुंचा सकता है और उस मुकाम को समाज रचित सही गलत के आकडों पर खरा उतारना भी आपके नज़रिए पर ही निर्भर करता
है। इसलिए तो आप क्या देख रहे से कहीं ज्यादा आप क्या देख पा रहे हैं वो अस्तित्व रखता
है। अर्थात आँखों से सृजित छाया से कहीं ज्यादा प्रभावशील मष्तिष्क पटल पर उकेरी गयी
छवि है जो आपको किसी निष्कर्ष पर ले जायेगी। अत : ये अत्यंत आवश्यक है कि नज़र की दृष्टि
सुधारने के लिए पहने गए ऐनक के साथ ही हम नज़रिए के दृष्टिकोण को सुधारने का भी प्रयास
करें ।
समाज में व्याप्त
आज अनेकों समस्याओं
का समाधान हमारे
दृष्टिकोण पर आश्रित
है। इश्वर के
अस्तित्व से लेकर
सत्य की परिभाषा
तक, नैतिक - अनैतिकता
के दायरों से
लेकर पाप - पुण्य
के परिणामों तक,
छल- कपट, लालसा,
स्वार्थ, परमार्थ, प्रेम, समभाव
आदि उत्पन्न वाली अनेकों
भावनाओं का एकभूत
संत्री हमारा नजरिया ही
है। स्वच्छ नजरिया
प्रेम की कोमलता
और पावनता को
देख पाता है
वहीँ अस्वच्छ मन
उसे काम और
वासना की नज़र
से ही आंक
पाता है। कई
बार हमारी सोच
हमें इस कदर
जकड़े रहती है
कि आँखों के
सामने घटित हो
रहे सत्य की
भी हम अवेहलना
कर देते हैं
और कभी यही
सोच की पट्टी
हमे इस हद
तक अँधा बना
देती है कि
हम उस चीज़
का भी इल्म
कर बैठते हैं
जिसका कोई वजूद
ही नही ।
कस्तूरी तृष्णा में
लिप्त भागे मृग
भरत छलांग
बावरा हुए घुमत
फिरत छोड़ छाड़
सब काम
भर भर
महक कस्तूरी ले
वो स्वांसा तान
मष्तिष्क चक्षु प्रयोग
जो कर लेता
तो पा जाता
आराम
इसी प्रकार भांति भांति
की तृष्णाओं के
मायाजाल में फंसे
अनेकों मृग रूपी
मनुष्य जहाँ तहां
अस्थिर अवस्था में विचर
रहे हैं जब
की मृग के
सामान वो अपनी
तृष्णाओं का सच
अपने ही भीतर
छिपाए हुए हैं
बस मष्तिष्क चक्षु
खोलने भर का
इंतज़ार है। सभी
स्वयं रचित अस्तित्वहीन
खोखली दीवारें ढह
जाएँगी । सब
फासले मिट जायेंगे
सभी संघर्ष विजय
प्राप्ति करेंगे क्योंकि
मन
की आंखन सब
पढें जो नयन
नज़र न पाए
जो मन
ज्ञात न भया
वो स्वयं ज्ञात
कसु होए
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