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Tuesday, 25 March 2014

"मैं और मैं का वजूद"

इस भागती, खुद से अंजान दुनिया में जहाँ किस को क्या चाहिए किसी को नहीं पता, इस नासमझ दुनिया का एक हिस्सा मैं भी हूँ। मैं जिस मैं को अपना वजूद ढूँढते आज एक अरसा हो चुका पर कामयाबी अभी भी मीलों दूर जान पड़ती हैं।
अप्नत्व की भावना मनुष्य से सत्य ही सब कुछ छिन लेती है। कभी कभी वो भी जो शायद उसने पूरी तरह कभी दिया ही ना हो। जिन्दगी के इस मोड़ पर खड़े होकर इस बात का एहसास तो निःसन्देह ही हो जाता है कि इन्सान का अकेलापन ही इन्सान का अपना होता है, बाकि सब पानी की लहरों की तरह कुछ पल साहिल पर ठहराव ले, अपने दूसरे पढ़ाव को बढ़ जाता है।
रिश्तों के मायाजाल में आज रिश्तों के मायनें ढूँढना रेत के सैलाब में आँसू के एक कतरे को तलाशने के समान है, निरर्थक और बेबुनियादी। वक्त के हर बदलते दौर के साथ कपड़ो के भाँति रिश्तों का बदलना एक बहुत ही आम बात है। बहुत खास रिश्तें, अनगिनत खुशनुमा लम्हें, हजारों वादे और एक दूजे के बिन ना जी पाने की लचारी मानों सिर्फ बस स्टॉप पे खड़े यात्री की बस छूट जाने की लचारी के समान है। दूसरी बस के आते ही उसकी यह लचारी अतीत होती नजर आने लगती है और जो सीट मिल जाए तो यह अतीत बेवजूद हो जाता है जैसे मानो कभी था ही नहीं।
इन्सान को कब क्या चाहिए शायद ही कोई इसका जवाब स्वयं को दे पाया होगा या कि कभी ही दे पायेगा। क्या पाने के लिए कब क्या खो दे, और फिर पुनः उस चीज की लालसा में कब क्या गवा बैठे इस बात का अनुमान लगा पाना शायद ही किसी गणितज्ञ के बस की बात हो।
आज के इस दौर में चाहतों ने अपने दायरों से बाहर निकलना सीख लिया है और सिर्फ इतना ही नहीं अपितु वक्त की रफ्तार के साथ जैसें इन चाहतों ने एक दौड़ प्रतियोगिता आयोजित कर ली हो ऐसा प्रतीत होता है। जैसे ही कोई एक चाहत समाप्ति की रेखा के समीप पहुँचती है ठीक उसी क्षण  एक नयी चाह एक नयी दौड़ प्रतियोगिता की घोषणा कर देती है। रात तो सिर्फ इस दौड़ के बीच के उन लम्हों के समान आती है जहाँ पानी की चंद बूँदें हलक के नीचे बड़ी मुश्किल से उतर पाती हैं और बाकि साँस सँभालने में कट जाती है। एक बैचेनी इस कदर घेरे रहती है मानों वक्त और रिश्तों के सच- झूठ से बने एक कैदखाने में जकड़े पड़े हों।
साथ होने पर दूर जाने का डर, डर खत्म हो जाने पर किसी और से जुड़ने की चाह, सब कुछ पा जाने पर खुद से बढ़ती दूरी के शिकवे- गिले और नतीजा फिर अकेलेपन के कांधे सर रखे रोते सारी रात का व्यतीत होना।
तो सवाल ये सामने खड़ा हो उठता है कि क्या यह ही सत्य है कि अभिमन्यु की भाँति हम भी इस चाहत के चक्रव्यूह में अंतिम वेला तक के लिए संघर्ष करते रहेंगे या कभी इस पर विजयध्वज का परचम लहरायेंगे?
सवाल स्वयं अपना जवाब अपने गर्भ में ढाँके हुए है बस जरूरत कुछ पल जिन्दगी से लड़कर छिनने और उन्हे डूबते सूरज के साथ खुद को एक कप कॉफी संग सर्व करने की है।

तो क्या आज आपकी कॉफी तैयार है?

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